विदेशों से आयातित पुराने कपड़ों का फैलता कारोबार और स्वदेशी वस्त्र उद्योग पर छाया संकट
विदेशों से आयातित पुराने कपड़ों का फैलता कारोबार और स्वदेशी वस्त्र उद्योग पर छाया संकट
कम दाम पर मिल रहे सेकंड-हैंड ब्रांडेड कपड़ों से देसी वस्त्र व्यापारियों की मांग में गिरावट
✍️अक्षय जैन
इन्दौर – देश के कई शहरों में फुटपाथ, हाट-बाज़ार और थोक गलियों में विदेशी देशों से आए पुराने पहने हुए कपड़ों की खुलेआम बिक्री आज एक सामान्य दृश्य बन चुकी है। यह व्यापार देखने में मामूली और “सस्ते विकल्प” की तरह भले लगे, पर इसके पीछे छिपी आर्थिक हानि, कर-पलायन, स्वास्थ्य जोखिम और स्वदेशी उद्योग पर पड़ रहा गंभीर प्रभाव—हमारे लिए गहरी चिंता का विषय है।
सस्ता माल, महँगा नुकसान
अमेरिका, यूरोप और खाड़ी देशों में पुराने कपड़ों की विशाल मात्रा को कचरे के रूप में निपटाया जाता है। इन्हीं कपड़ों को छांटकर कंटेनरों में भरकर भारत और एशियाई देशों में भेज दिया जाता है। यहाँ वे किलो के हिसाब से खरीदे–बेचे जाते हैं और फिर फुटपाथ बाजारों में खुले में फैल जाते हैं। उपभोक्ता के लिए यह कम दाम में ‘फैशनेबल विकल्प’ जरूर बन जाता है, मगर उसका असली मूल्य देश को चुकाना पड़ता है।
जीएसटी से बचता यह कारोबार—सरकार को घाटा
सबसे बड़ी विसंगति यह है कि यह पूरा व्यापार लगभग बिना टैक्स के चलता है। न बिल, न रजिस्ट्रेशन, न जीएसटी—फुटपाथ पर बिकने वाला यह माल सीधे-सीधे सरकार के राजस्व को निगल रहा है। आयात में कई बार “दान सामग्री” या “पुराना माल” दिखाकर कस्टम शुल्क बचाया जाता है। सड़क बाजारों में नकद बिक्री के कारण कोई राजस्व दर्ज नहीं होता। कपड़ों के पुन: बिक्री नियमों में अस्पष्टता का फायदा उठाकर पूरा नेटवर्क ‘अनौपचारिक’ बना दिया जाता है। यह स्थिति सरकार की आय को ही नहीं, बल्कि संगठित वस्त्र व्यापार के अस्तित्व को भी चुनौती दे रही है।
स्वदेशी वस्त्र उद्योग को लगती दोहरी चोट
भारत की टेक्सटाइल और रेडीमेड गारमेंट इंडस्ट्री करोड़ों लोगों को रोजगार देती है—बुनकर, कारीगर, दर्जी, धागा-निर्माता, हैंडलूम इकाइयाँ, फैशन डिज़ाइनर, ट्रांसपोर्ट और रिटेलर—एक विशाल श्रृंखला। लेकिन विदेशी यूज़्ड कपड़े इस पूरी श्रृंखला की मांग को चोट पहुँचा रहे हैं।
स्थानीय उत्पादन की बिक्री गिर रही है।
छोटे कारखाने लागत निकाल नहीं पा रहे
कारीगर और मजदूरों की आय प्रभावित
ब्रांडेड व घरेलू कंपनियों की प्रतिस्पर्धा कमज़ोर
सस्ता विदेशी पुराना कपड़ा एक अदृश्य विदेशी हथियार बन चुका है, जो भारत के घरेलू उद्योग की जड़ों को खोखला कर रहा है। स्वास्थ्य खतरे—अनदेखा लेकिन वास्तविक यूज़्ड कपड़ों में अक्सर बैक्टीरिया, फंगस, त्वचा-रोग और रासायनिक अवशेष पाए जाते हैं। गुणवत्ता परीक्षण के अभाव में ये कपड़े सीधे उपभोक्ता तक पहुँचते हैं, जिससे: त्वचा संक्रमण ,एलर्जी ,फंगल इन्फेक्शन ,बच्चों में स्किन रोग जैसे खतरे बढ़ जाते हैं। स्वास्थ्य विभाग और स्थानीय प्रशासन की इस दिशा में सतर्कता बेहद कमजोर है।
स्वदेशी अभियान को कमजोर करने वाली छिपी ताकतें
स्वदेशी वस्त्र उद्योग को नुकसान पहुंचाने वाली ताकतें केवल विदेशी कंपनियाँ ही नहीं, बल्कि देश के भीतर मौजूद कई नेटवर्क भी है जिसके वजह से खुले आम टैक्स चोरी से चल रहा अनौपचारिक व्यापार पल्लवित हो रहा है। एक बड़े आर्थिक माफिया के वजह से सस्ता विदेशी कचरा खरीदने की उपभोक्ता मानसिकता को नशे की तर्ज पर फैलाया जा रहा है। शासन के नीति-निर्माण में लचीलापन और टेक्स चोरी निरीक्षण की कमी इस अवैध कारोबार को पनपा रही है। माफियाओं का गठजोड़ स्वदेशी वस्त्र उद्योग को कमजोर कर रहा है, जबकि राष्ट्र की आर्थिक सेहत में इसका सबसे बड़ा योगदान है।
