बिरसा मुंडा जयंती – MP# जनजातीय भाई-बहनों के हितों की रक्षा एवं कल्याण के प्रयासों की यात्रा अविराम जारी रहेगी : मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान
भगवान बिरसा मुण्डा जयंती पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज बोले
भोपाल: मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि, हम भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर जल, जंगल, जमीन एवं जनजातीय संस्कृति, परंपराओं की रक्षा के पवित्र प्रयासों को हम आगे बढ़ाने के लिए संकल्पित हैं। जनजातीय भाई-बहनों के हितों की रक्षा एवं कल्याण के इस ध्येय की प्राप्ति तक मेरे संकल्पित प्रयासों की यात्रा अविराम जारी रहेगी।शिवराज सिंह ने कहा, मां भारती की स्वतंत्रता और जल, जंगल, जमीन एवं जनजातीय संस्कृति तथा परंपराओं की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर कोटिशः: नमन्! जनजाति गौरव दिवस में सम्मिलित होने के लिए पधारने वाले सभी गणमान्य साथियों, केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक, सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों व श्रद्धेय साधु-संतों के प्रति आभार व्यक्त करता हूं।
कौन थे आदिवासियों के ‘भगवान’ बिरसा मुंडा
बिरसा मुंडा एक युवा स्वतंत्रता सेनानी और एक आदिवासी नेता थे, जिन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनके संघर्ष के लिए याद किया जाता है. बिहार और झारखंड के आदिवासी इलाकों में जन्मे और पले-बढ़े बिरसा मुंडा की जयंती पर साल 2000 में झारखंड राज्य की नींव रखी गई थी.
15 नवंबर, 1875 को जन्मे बिरसा को आदिवासी समुदायों में ‘भगवान बिरसा मुंडा’ का दर्जा दिया जाता है. ब्रिटिश शासन के खिलाफ बिरस का संघर्ष बहुत कम उम्र से ही शुरू हो गया था. 1886 से 1890 की अवधि के दौरान, उन्होंने चाईबासा में काफी समय बिताया, जो सरदारों के आंदोलन के केंद्र के करीब था.
सरदारों की गतिविधियों का युवा बिरसा के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा. 1890 में जब उन्होंने चाईबासा छोड़ा, तब तक बिरसा आदिवासी समुदायों के ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन में मजबूती से शामिल हो गए थे. उनकी गतिविधियों से ब्रिटिश सरकार की रातों की नींदें उड़ गई थीं. जल-जंगल-जमीन के आंदोलन का नेतृत्व किया. इसी वजह से लोग उन्हें ‘धरती आबा’ यानी धरती के पिता कहने लगे. बिरसा थोड़ा-बहुत आयुर्वेद भी जानते थे. वह लोगों की बीमारी पहचानकर जड़ी-बूटियों से इलाज करते थे और इसी कारण लोग उन्हें ‘भगवान’ मानने लगे. उनके बारे में कहा जाने लगा कि बिरसा जिसे छूते हैं वह ठीक हो जाता है. 3 मार्च 1900 को, बिरसा को ब्रिटिश पुलिस ने चक्रधरपुर के जामकोपई जंगल में अपनी आदिवासी छापामार सेना के साथ सोते समय गिरफ्तार कर लिया था. 9 जून 1900 को मात्र 25 साल की उम्र में रांची जेल में उनका निधन हो गया. इतनी कम उम्र में देश के स्वतंत्रता संघर्ष में उनके योगदान के कारण ही देश की संसद के संग्रहालय में भी उनकी तस्वीर है. जनजातीय समुदाय में यह सम्मान अभी तक बिरसा मुंडा को ही हासिल हुआ है.
बिरसा मुंडा की जयंती, 25 साल से भी कम उम्र का रहा जीवन, आदिवासियों के लिए अंग्रेजों से लिया था लोहा
बिरसा मुंडा आदिवासियों के लिए अंग्रेजों से लिया था लोहा
आदिवासी बिरसा मुंडा को भगवान मानते हैं
बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के ऐसे नायक रहे, जिनको जनजातीय लोग आज भी गर्व से याद करते हैं
बिरसा मुंडा एक युवा स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी नेता थे, जिनकी 19वीं सदी के अंत में सक्रियता की भावना को भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक मजबूत विरोध के रूप में याद किया जाता है। बिहार और झारखंड के आदिवासी इलाकों में जन्मे और पले-बढ़े बिरसा मुंडा की उपलब्धियां इस तथ्य के कारण और भी उल्लेखनीय हैं कि उन्होंने 25 साल की उम्र से पहले ही उन्हें हासिल कर लिया था। राष्ट्रीय आंदोलन पर उनके प्रभाव को देखते हुए 2000 में उनकी जयंती पर झारखंड राज्य बनाया गया था।
बिरसा ने अपना अधिकांश बचपन अपने माता-पिता के साथ एक गांव से दूसरे गांव में घूमने में बिताया। वह छोटानागपुर पठार क्षेत्र में मुंडा जनजाति के थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सलगा में अपने शिक्षक जयपाल नाग के मार्गदर्शन में प्राप्त की। जयपाल नाग की सिफारिश पर बिरसा ने जर्मन मिशन स्कूल में शामिल होने के लिए ईसाई धर्म अपना लिया। हालांकि, उन्होंने कुछ वर्षों के बाद स्कूल छोड़ दिया। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक और आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के मिशनरियों के प्रयासों के बारे में जागरूकता प्राप्त करने के बाद, बिरसा ने ‘बिरसैत’ की आस्था शुरू की। जल्द ही मुंडा और उरांव समुदाय के सदस्य बिरसैत संप्रदाय में शामिल होने लगे और यह ब्रिटिश धर्मांतरण गतिविधियों के लिए एक चुनौती बन गया।
1886 से 1890 की अवधि के दौरान बिरसा मुंडा ने चाईबासा में काफी समय बिताया, जो सरदारों के आंदोलन के केंद्र के करीब था। सरदारों की गतिविधियों का युवा बिरसा के दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिससे वो जल्द ही मिशनरी विरोधी और सरकार विरोधी कार्यक्रम का हिस्सा बन गए। 1890 में जब उन्होंने चाईबासा छोड़ा, तब तक बिरसा आदिवासी समुदायों के ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन में मजबूती से शामिल हो गए थे।
बेहद प्रभावशाली रहा छोटा सा जीवन
3 मार्च 1900 को बिरसा मुंडा को ब्रिटिश पुलिस ने चक्रधरपुर के जामकोपई जंगल में अपनी आदिवासी छापामार सेना के साथ सोते समय गिरफ्तार कर लिया था। 9 जून, 1900 को 25 वर्ष की छोटी उम्र में रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई। हालांकि उन्होंने जीवन का एक छोटा सा समय जीया और यह तथ्य है कि उनकी मृत्यु के तुरंत बाद आंदोलन समाप्त हो गया। बिरसा मुंडा को अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासी समुदाय को लामबंद करने के लिए जाना जाता है और उन्होंने औपनिवेशिक अधिकारियों को आदिवासियों के भूमि अधिकारों की रक्षा करने वाले कानूनों को पेश करने के लिए मजबूर किया था।
भारत सरकार मना रही जनजातीय गौरव दिवस
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके 400 सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं। 10 नवंबर 2021 को भारत सरकार ने 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।